चीन और अमेरिका के बाद भारत ग्रीनहाउस गैस (GHGs) का उत्सर्जन करनेवाला विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है.
कोयले से चलनेवाले पावर प्लांट्स, चावल की खेती और पशु इस उत्सर्जन के सबसे बड़े कारक हैं और इसमें तेज़ी से बढ़ोत्तरी जारी है. ग़ौरतलब है कि बावजूद इसके अगर विश्व के औसत से तुलना की जाए तो भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन औसत काफ़ी कम है.
जलवायु परिवर्तन के मामले में भारत एक बेहद संवेदनशील देश है और इसकी मुख्य वजह हिमालय के ग्लेशियर का पिघलना और मॉनसून में लगातार होनेवाला बदलाव है.
उल्लेखनीय है कि भारत ने 2005 की तुलना में अपनी अर्थव्यवस्था में ‘उत्सर्जन की तीव्रता’ को 30 से 35% तक कम करने का प्रण लिया है.
भारत में इस साल अप्रैल और मई महीने में आम चुनाव होनेवाले हैं और चुनाव पूर्व किए गए सर्वे के आधार परअनुमान लगाया जा रहा है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मामूली अंतर से एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने सकते हैं.
राजनीति
भारत सबसे ज़्यादा आबादी वाला दुनिया का दूसरा देश है, जिसकी आबादी 1.3 बिलियन यानि 130 करोड़ है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के मानकों के आधार पर भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसका नंबर यूके के बाद आता है. ग़ौरतलब है कि भारत विश्व की सबसे तेजी से आगे बढ़नेवाली अर्थव्यवस्था है. चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत 2025 तक दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा और 2060 तक इसकी आबादी 1.7 बिलियन यानि 170 करोड़ हो जाएगी.
नरेंद्र मोदी को 2014 में पहली बार भारत का प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला. हिंदू राष्ट्रवादी कहलाई जानेवाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को संसदीय चुनावों में पहली बार बहुमत हासिल हुआ और पिछले 30 सालों में ऐसा करनेवाली वो पहली पार्टी साबित हुई. बीजेपी ने कुल 31% वोट और 52% सीटें हासिल कीं तो वहीं आज़ादी के 72 सालों में कई बार सत्ता का स्वाद चख चुकी इंडियन नैशनल कांग्रेस (आईएनसी) को महज़ 19% वोट और 8% सीटें हासिल हुईं.
मोदी ने अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन संबंधी राजनीति के मामले में भारत को हमेशा से एक ज़िम्मेदार देश के रूप में पेश किया है. 2018 में मोदी ने दुनिया के तमाम नेताओं से कहा था कि जलवायु परिवर्तन “जैसा कि हम सभी जानते हैं, ये मानव जाति और मानव सभ्यता के बचे रहने के लिए हमारे सामने खड़ी एक बड़ी चुनौती है.”
भारत में आम चुनावों की शुरुआत 11 अप्रैल, 2019 से होगी और 19 मई, 2019 को आखिरी बार वोट डाले जाएंगे जबकि चुनावी नतीजों के ऐलान की तारीख़ 23 मई है. इन चुनावों में तकरीबन 900 मिलियन यानि 90 करोड़ मतदाता वोट डाल सकेंगे. इन चुनाव के नतीजों का अनुमान लगाना बेहद मुश्क़िल काम है. हालांकि जनवरी-फ़रवरी में कराए गए ओपिनियन पोल्स के मुताबिक, मोदी की पार्टी बीजेपी को बहुमत हासिल करने तक की सीटें हासिल हो जाएंगीं. अनुमान लगाया जा रहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेटे, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पोते और पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पड़पोते राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस इन चुनावों में दूसरे नंबर पर आएगी.
1949 में लागू किए गए भारतीय संविधान के अनुसार, राज्य पर्यावरण की रक्षा और उसे और बेहतर बनाने की दिशा में तमाम तरह के प्रयत्न करेगा और देश के वनों व वन्यजीवों की सुरक्षा करेगा. 2006 में बनाई गई भारत की राष्ट्रीय पर्यावरण नीति में पर्यावरण की रक्षा को विकास की प्रकिया में समाहित करने की बात को रेखांकित किया गया है.
2002 में, भारत ने नई दिल्ली में UNFCCC (यूनाइटेड नेशन्स फ़्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लामेट चेंज) से संबंधित आठवें आधिकारिक बैठक का आयोजन और उसकी अगुवाई की थी. इस मीटिंग में दिल्ली मिनिस्ट्रियल घोषणापत्र को अपनाया गया था. इसमें विकसित देशों से टेक्नोलॉजी को ट्रांसफ़र करने की अपील की गई थी, जिससे विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी लाने और ख़ुद को जलवायु परिवर्तन के मुताबिक ढालने में उसे मदद मिले. इस मामले में भारत अपनी महत्वाकांक्षाओं और समान अवसरों को लेकर भी काफ़ी सजग और चिंतिंत रहा है.
प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 2015 में किए गए एक सर्वे के मुताबिक, तीन चौथाई भारतीय ग्लोबल वार्मिंग को लेकर काफ़ी चिंतित हैं. ये प्रतिशत सर्वे में शामिल किए गए सभी एशियाई देशों में सर्वाधिक है. 2017 में किए गए एक और सर्वे से ये बात सामने आई कि 47% भारतीय जलवायु परिवर्तन को अपने देश के लिए ‘बड़ा ख़तरा’ मानते हैं. इसके बाद दूसरे नंबर पर वो आतंकवादी संगठन आईएसआईएस को देश के लिए ख़तरा समझते हैं.
भारत की तकरीबन 13% आबादी तक अब भी बिजली नहीं पहुंच पाई है, जबकि देश की आधी आबादी अभी भी खाना पकाने के लिए बायोमास (गोबर, लकड़ी आदि) पर निर्भर करती है. मोदी ने बार-बार कहा है कि वो सुनिश्चित करेंगे कि सभी घरों में बिजली पहुंचे. उन्होंने कहा था कि मार्च, 2019 सभी घरों में बिजली पहुंचने की संभावना है. हालांकि अभी भी ज़्यादातर लोगों तक ज़रूरत के मुताबिक बिजली नहीं पहुंच पाती है.
पेरिस प्लेज़ (प्रण)
अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन से संबंधित बातचीत और समझौते को लेकर भारत का शुमार चार देशों में होता है जिसे BASIC के नाम से बुलाया जाता है. इसमें ब्राज़ील, दक्षिण अफ़्रीका और चीन जैसी उभरती आर्थिक शक्तियों; समान विचारों वाले विकासशील देशों (LMDC); G77 + चीन; और वन आवरण (रेन फॉरेस्ट) के गठबंधन वाले देशों (Cfrn) का शुमार है.
पोट्सडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिचर्स (PIK) द्वारा एकत्रित किए गए डाटा के मुताबिक, 2015 में भारत द्वारा की ग ई GHG उत्सर्जन की मात्रा 3,571 मीट्रिक टन थी, जो CO2 के समान (MtCO2e) थी. 1970 के मुक़ाबले उत्सर्जन की मात्रा अब तीन गुना बढ़ चुकी है.
2015 में भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की मात्रा 2.7tCO2e थी जो अमेरिका से सात गुना कम और दुनिया के औसत 7.0tCO2e से आधी थी (इस लेख के अंत में 2015 के डाटा के इस्तेमाल पर ‘note on infographic’ देखें).
भारत ने 2 अक्तूबर, 2016 को पेरिस समझौते पर औपचारिक रूप से हस्ताक्षर किए थे. ऐसा उसने पेरिस जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रण लेने अथवा ‘राष्ट्रीय निर्धारित योगदान’ (NDC) के लिए हामी भरने के लगभग एक साल बाद किया था.
इस प्रण के मुताबिक, 2005 की तुलना में 2030 तक आर्थिक आउटपुट (उत्सर्जन की तीव्रता) से संबंधित प्रति यूनिट उत्सर्जन में 33-35% तक की कमी की जाएगी. कार्बन ब्रीफ़ के आंकलन के अनुसार, 2014 से 2030 के बीच भारत की तरफ़ से किए जानेवाले उत्सर्जन की मात्रा में 90% की बढ़ोत्तरी होगी. अगर सबकुछ प्रण के मुताबिक हुआ तो भी उत्सर्जन में इस कदर बढ़ोत्तरी देखी जा सकती है.
भारत का एक और लक्ष्य है कि 2030 तक अपने इंस्टॉल किए गए 40% बिजली क्षमता को अक्षय ऊर्जा अथवा परमाणु ऊर्जा में तब्दील करने का है.
इसके अतिरिक्त, भारत ने 2030 तक अतिरिक्त कार्बन सिंक के निर्माण के लिए वृक्ष आवरण को भी 2,500-3,000MtCO2e तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा है. इनकी संख्या एक साल में किए जानेवाले कुल उत्सर्जन के बराबर होगी.
इस प्रण के मुताबिक, भारत का लक्ष्य मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए बेहद महत्वाकांक्षी होने का आभास कराता है और ग्लोबल वार्मिंग के प्रति विकसित देशों के उदासीन और उपेक्षापूर्ण रवैये की आलोचना करता है. प्रण के अनुसार, “भारत समस्या की वजह नहीं है, इसके बावजू्द भी वह सक्रिय तौर पर रचनात्मक हिस्सेदारी के जरिए समाधान ढूंढने वाला देश रहा है.“
भारत ने साफ़ कर दिया है कि उसके द्वारा लिए प्रण को लागू करना जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आर्थिक टेक्नोलॉजी ट्रांसफ़र और विकसित देशों द्वारा क्षमता के निर्माण से संबंधित सहयोग पर निर्भर करेगी. कुल मिलाकर उसका अनुमान है कि उसे 2030 तक घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कम से कम 2.5 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी.
पेरिस समझौते के 2C लक्ष्य के प्रति भारत के NDC में निरंतरता रही है, मगर क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (CAT), तीन शोध संस्थानों द्वारा जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रण पर स्वतंत्र रूप से किए गए विश्लेषण से ये बात सामने आई है कि 1.5C लिमिट को लेकर भारत की ओर से निरंतरता का अभाव रहा है. हालांकि CAT का कहना है कि उच्च स्तर पर भारत की नीतियां 1.5C के अनुकूल है.
CAT के मुताबिक, अपने आखिरी राष्ट्रीय बिजली योजना यानि नैशनल इलेक्ट्री सिटी प्लान (NEP) को अपनाने के बाद भारत अब पेरिस समझौते के अपने लक्ष्य से आगे निकलने की राह पर है.
CAT का कहना है कि हाइड्रोइलेक्ट्रिसिटी और परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल से भारत अपने 40% गैर जीवाश्म ऊर्जा क्षमता के लक्ष्य को एक दशक पहले ही हासिल कर सकता है. CAT का अनुमान है कि 2030 में भारत की उत्सर्जन तीव्रता 2005 के मुक़ाबले 50% कम होगी, जो कि 33-35% के लक्ष्य से कहीं आगे होगी.
जलवायु परिवर्तन से संबंधित महत्वाकांक्षी बदलाव की योजना रखनेवाली एक शोध और एनजीओ पार्टनरशिप क्लाइमेट चेंज ने भारत से संबंधित अपने विश्लेषण में ज़्यादा ख़ुशनुमां तस्वीर नहीं उकेरी है. उसके मुताबिक भारत का NDC तापमान 2C तक सीमित रखने के लिए अनुकूल है, मगर उसकी मौजूदा (2018) योजनाएं इन उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती हैं।
CAT के अनुसार, भारत सरकार 2030 से लेकर 2045 तक की एक लम्बी अवधि की विकास से संबंधित रणनीति पर काम कर रही है, जो कार्बन उत्सर्जन और आर्थिक विकास को ‘डिकपल’ यानि अलग कर देगा. भारत ने इस बात के संकेत दिए हैं कि वह 2020 तक जलवायु परिवर्तन से संबंधित अपने प्रण में और वृद्धि करेगा. हालांकि उसने अभी तक पेरिस समझौते के लक्ष्यों को घरेलू कानून में तब्दील नहीं किया है.
भारत ने 2008 में नैशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (NAPCC) से संबंधित अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसे उत्सर्जन में कमी लाने और अनुकूल नीति से संबंधित आठ मिशन में विभाजित किया गया है. इस सभी आठ आयामों को निम्निलिखित सामायिक सेक्शन में रेखांकित किया गया है.
भारतीय राज्यों को अपनी ओर से स्टेट क्लाइमेट एक्शन प्लान भी पेश किए जाने की ज़रूरत है. इनमें उत्सर्जन में कमी लाने से संबंधित वायदे, ई-मोबिलिटी अथवा सौर व पवन ऊर्जा क्षमता कोटा का शुमार है.
कोयला
2015 में, भारत ने कोयले की खपत के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया था और कोयले की सबसे अधिक खपत करनेवाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया. कोयले की सबसे ज़्यादा खपत के मामले में चीन सबसे अग्रणी देश है.
चीन द्वारा कोयले का इस्तेमाल अपने चरम पर पहुंच चुका है, जिसका मतलब ये हुआ कि ईंधन के इस्तेमाल के लिहाज़ से भारत कमोबेश विश्व का अग्रणी देश साबित हो. कई जानकारों का मानना है कि भारत में तेज़ी से होनेवाले विकास का असर दुनिया पर पड़ेगा और पूरे विश्व में मांग बढ़ जाएगी. फिर भी ये 2014 की शीर्ष स्थिति से कम ही रहनेवाला है.
कोयले की वजह से भारत में बिजली के इस्तेमाल में बहुत तेज़ी आई है. 2000 से भारत के कोयला उत्पादन में तीन गुना तक की वृद्धि हुई है. 2017 में भारत में 80% बिजली का उत्पादन कोयले के इस्तेमाल से हुआ. नीचे पेश किए चार्ट (काली जगहों) में इस दर्शाया गया है।
Electricity generation in India by fuel, 1985-2017 (Terawatt hours). Source: BP Statistical Review of World Energy 2018. Chart by Carbon Brief using Highcharts.
भारत में 1985 से लेकर 2017 (टेरावाट घंटे) तक बिजली उत्पादन. स्त्रोत : बीपी स्टैटिस्टिकल रीव्यू ऑफ़ वर्ल्ड एनर्जी 2018. हाईचार्ट्स के ज़रिए चार्ट का निर्माण कार्बन ब्रीफ़ ने किया है.
जनवरी 2019 तक भारत के पास 221 गिगावाट्स (GW) के सुचारू कोयला प्लांट थे. ग्लोबल कोल प्लांट ट्रैकर के मुताबिक, ये दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोयला फ़्लीट है जो दुनिया की क्षमता का 11% है. इसके अतिरिक्त, 36GW का निर्माण किया जा रहा है और 58GW विकास के शुरुआती चरण में है. नए प्लांट लगाने की क्षमता में तेज़ी से कमी आ रही है. पिछले साल से इसमें एक चौथाई तक की कमी आई है और 2014 से इसमें पांच गुना तक कमी देखी गई है.
सरकारी अनुमान के मुताबिक, 2027 तक कोयले की क्षमता बढकर 238GW हो जाएगी. इसके पहले के NEP ड्राफ़्ट में 2022 तक कोयले के विस्तार की कोई योजना नहीं थी. इसमें पहले से ही निर्मित किए जा रहे 50GW क्षमता वाले प्लांट का शुमार नहीं है. हालांकि अंतिम मसौदे में 90GW क्षमता वाले कोयले से संबंधित बिजली उत्पादन का ज़िक्र है. इसे लेकर कुछ लोगों का मानना है कि इसकी गिनती ‘स्टैंडेड ऐसेस्ट्स’ के तौर पर होने का ख़तरा मंडरा रहा है. CAT का कहना है कि कोयला आधारित बिजली उत्पादन के लिए योजनाओं को ठंडे बस्ते में डालने से भारत की नीतियां 1.5C के अनुकूल हैं.
इस बात पर ज़ोरों से चर्चा जारी है कि भारत में नए कोयला प्लांट किस हद तक बन पाएंगे. नवीकरणीय ऊर्जा के गिरते दामों और बिजली की उम्मीद से कम मांग के मद्देनज़र चर्चा इस बात पर भी हो रही है कि मौजूदा प्लांट्स कब तक चल पाएंगे. भारत की बढ़ती कोयले की मांग से संबंधित अनुमानों को बार बार बदला जाता रहा है और हाल ही में किए गए एक विश्लेषण में कहा गया था कि कोयले के नए प्लांट्स के अधिकत्तर प्रस्तावों को रद्द किया जा सकता है.
भारत में कोयले के प्लांट्स से स्वास्थ्य पर पड़नेवाले विपरीत असर को लेकर चिंताएं जताई जाती रही हैं. हाल ही में लैंसेट प्लैनट हेल्थ द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में होनेवाली आठ में से एक मौत प्रदूषित हवा के चलते होती है. ग़ौरतलब है कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से आधे भारत में हैं. सौर ऊर्जा और बैटरी के गिरते दामों का इस सेक्टर पर ख़ासा असर देखा जा रहा है.
2015 में, भारत ने कोयला प्लांट्स से फ़ैलनेवाले वायु प्रदूषण के मद्देनज़र उत्सर्जन के ऐसे नए मानक बनाए थे, जिनपर 2017 से अमल किया जाना था. पुराने प्लांट्स के लिए बनाए मानकों में थोड़ी ढिलाई बरती गई है. बता दें कि इन मानकों पर अमल नहीं किया गया और सुप्रीम कोर्ट ने अब इन मानकों पर पूरी तरह से अमल करने के लिए 2022 तक का वक्त दिया है.
चीन के बाद भारत कोयले के निर्माण और आयात के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है. राष्ट्रीय कोयला खनन कंपनी और दुनिया में सर्वाधिक कोयला खनन करनेवाली कंपनी कोल इंडिया घरेलू स्तर पर देश को 84% कोयला मुहैया कराती है. भारत के पास 98 बिलियन टन का कोयला रिज़र्व है, जो दुनिया के पास मौजूद कोयले का 9.5% है. इस मामले में भी चीन के बाद भारत का नंबर दूसरा आता है.
सरकार को उम्मीद है कि वो जल्द ही कोयले का आयात बंद कर देगी. भारत कोयले का आयात इंडोनेशिया, दक्षिण अफ़्रीका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से करता है। 2019-20 तक उसका लक्ष्य कोल इंडिया के माध्यम से 1,000 मीट्रिक टन कोयला उत्पादन करने का है, जो 2018-19 के निर्धारित लक्ष्य 650 मीट्रिक टन से कहीं ज़्यादा है. उम्मीद जताई जा रही है कि इस लक्ष्य को पाने के लिए समय-सीमा बढ़ाई जा सकती है.
भारत का कहना है कि विश्वनीय, मांग की ज़रूरत और सस्ती बिजली की आपूर्ति के लिए कोयले का इस्तेमाल करना पड़ता है, मगर उसने अब अपने कोयले के प्लांट्स को और अधिक सक्षम और दक्ष बनाने की दिशा में भी कदम उठाए हैं.
2010 में, भारत ने कोयला सेस (कर) लागू किया था, जिसके तहत 2010 से 2018 के बीच उसने 12 बिलियन डॉलर इकट्ठा किए थे. उसे उम्मीद है 2019-20 में वह एक बिलियन डॉलर की और उगाही कर लेगा. उल्लेखनीय है कि इस सेक्टर को उच्च सब्सिडी दर हासिल है, जो 2016 में कुल 2.3 बिलियन डॉलर थी. ये सब्सिडी अधिकांशतया टैक्स ब्रेक के रूप खनन सेक्टर को मुहैया कराई जाती है.
भारत के कुछ राज्यों को हासिल होनेवाले कुल राजस्व का आधा हिस्सा कोयले से प्राप्त होता है. इसका सीधा अर्थ है कि वैकल्पिक स्त्रोतों को तलाशने के लिए ऐसी नीतियां अपनानी होंगी, जो कोयला मज़दूरों के हितों में हों. रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इसपर कम ही चर्चा हो रही है. हालांकि 2015 में, भारत में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम की शुरुआत हो चुकी है, जिसके तहत युवाओं के लिए रोज़गार बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है. इस कार्यक्रम के तहत नवीनीकरण ऊर्जा के क्षेत्र में काफ़ी ध्यान दिया जा रहा है.
Interactive map of historical and planned coal power plants in India
लो-कार्बन एनर्जी
नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत ने तेज़ी से उल्लेखनीय कदम उठाए हैं. 2017 में पहली बार ऐसा हुआ कि नवीकरणीय ऊर्जा संबंधी निवेश और नई क्षमता ने पारंपरिक ईंधन को पीछे छोड़ दिया. हालांकि 2017 में सिर्फ़ 11% बिजली ही नवीकरणीय ऊर्जा से प्राप्त हुई थी, जिसमें बड़े हाइड्रो से प्राप्त 9.5 % बिजली शामिल है.
सौर ऊर्जा की लगातार गिरती कीमतों से ये बात स्पष्ट हो चली है कि बिजली का वितरण करनेवाले वितरक अब कोयला आधारित बिजली के वितरण को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं हैं. ग्रिड में जैसे-जैसे नवीकरणीय ऊर्जा की पैठ बढ़ती जाएगी, विभिन्न तरह की आपूर्ति के लिए स्मार्ट ग्रिड को हासिल करने जैसी नीतियों को अपनाना आवश्यक हो जाएगा.
इंटरनैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ सस्टेनेबल डेवलेपमेंट (IISD) के मुताबिक, नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए 2014 में 431 मिलियन डॉलर की सब्सिडी प्रदान की गई थी, जो 2016 में बढ़ाकर 1.4 बिलियन डॉलर कर गई. IISD ने बताया कि इसकी तुलना में, 20116 में ही कोयला, तेल और गैस को छह गुना सरकारी समर्थन हासिल हुआ.
भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए 2003 में अपने बिजली संबंधी कानून का इस्तेमाल करना शुरू किया. 2015 में भारत ने नया लक्ष्य निर्धारित करते हुए 2022 तक 175GW की नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापना का लक्ष्य रखा, जिसमें 100GW सौर, 60GW अपटीय पवन, 10GW बायो-एनर्जी और 5GW छोटे हाइड्रो परियोजनाओं का शुमार है. कार्बन ब्रीफ़ द्वारा पिछले साल लिखे गए एक विशेष लेख के मुताबिक, इस सबसे तकरीबन 70GW कोयले को रीप्लेस किया जा सकता है. पारंपरिक ईंधन और लो-कार्बन प्लांट्स को मिलाकर भारत की मौजूदा क्षमता 350GW है.
2018 में भारत के बिजली मंत्री राज कुमार सिंह ने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि मार्च 2020 तक भारत 72GW क्षमता वाले सभी प्लांट्स का निर्माण कर लेगा या फिर उन्हें कमीशन कर लेगा. सितंबर 2018 तक नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता 72GW हो चुकी थी.
राजकुमार सिंह ने ये भी कहा था कि अब उनके देश को उम्मीद है कि 2022 तक उसे 225GW नवीकरणीय ऊर्जा हासिल हो जाएगी. हालांकि ये लक्ष्य बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट्स को ‘नवीकरणीय’ होने का दर्जा दिए जाने के चलते भी हो सकता है. भारत के सबसे ताज़ा NEP का अनुमान है कि 2027 तक 275GW नवीकरणीय ऊर्जा संबंधी प्लांट्स स्थापित कर लिए जाएंगे.
2016 में बदली की गई टैरिफ़ नीति में बिजली वितरकों और बिजली इस्तेमाल करनेवाले कुछ बड़े यूज़र्स के लिड नवीकरणीय स्त्रोतों से ऊर्जा का एक हिस्सा खरीदने की व्यवस्था की गई है. इसमें सौर और पवन ऊर्जा को अंतर-राज्यीय ट्रांसमीशन पर लगनेवाले करों से मुक्त करने की भी व्यवस्था है.
भारत ने 2010 में अपने नैशनल सोलार मिशन (राष्ट्रीय सौर मिशन) को लॉन्च किया था, जो आठ NAPCC मिशन में से एक है. इसका मूल लक्ष्य 2022 तक 20GW सौर ऊर्जा प्राप्त करना था मगर 2015 में इस लक्ष्य को बढ़ाकर 100GW कर दिया गया. इसमें रूफ़टॉप से हासिल होनेवाली सौर ऊर्जा का हिस्सा 40% रखा गया है.
भारत की योजना 2022 तक 2GW ऑफ़ ग्रिड सौर ऊर्जा हासिल करने की है, जिसमें से ग्रामीण इलाकों में 20 मिलियन सौर संचालित लाइट्स की व्यवस्था करना शामिल है.
हाल ही में भारत द्वारा UNFCCC को सौंपी गई अपनी द्विवार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, अगस्त 2018 तक 23GW सौर ऊर्जा संबंधी प्लांट्स को या तो स्थापित कर दिया गया था या फिर इन्हें कमीशन कर दिया गया था. भारत दुनिया के सबसे बड़े सौर ऊर्जा संबंधी पार्क के निर्माण में संलग्न है.
हालांकि कंसल्टेंसी फ़र्म वुड मेकेंज़ी के अनुसार, सौर ऊर्जा पर बदलती टैक्स दरों से पैदा होनेवाली आर्थिक अस्थिरता और टैरिफ़ पर फिर से किए जानेवाले समझौते के चलते ये संभव है कि भारत 100GW के अपने लक्ष्य से चूक जाए.
पवन से निर्मित ऊर्जा के मामले में दुनिया में भारत का स्थान चौथा है. पहला स्थान चीन, दूसरा अमेरिका और तीसरा स्थान जर्मनी का है. 2018 के मध्य तक भारत ने 34GW अपटतीय पवन ऊर्जा के निर्माण की व्यवस्था कर ली थी. भारत 2022 के लिए पवन ऊर्जा संबंधी निर्धारित किए गए अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए नीलामी का सहारा ले रहा है.
भारत की द्विवार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2014 में सौर ऊर्जा की कीमतें दो-तिहाई तक कम हुईं हैं जबकि अपटतीय पवन संबंधी ऊर्जा की कीमत आधी हो गई है.
भारत 2022 तक 5GW और 2030 तक 30GW अपटतीय पवन ऊर्जा संबंधी परियोजनाओं की स्थापना करना चाहता है.
द्विवार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, आर्थिक तौर पर फ़ायदेमंद साबित होनेवाले स्त्रोतों से जुड़े भारत के नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता तकरीबन 1,100GW है. इसमें 300GW पवन ऊर्जा और 750GW सौर ऊर्जा का समावेश है. क्लामेट चेंज इनिशिएटिव (CPI) के अनुसार, 2030 तक देश कम कीमत वाले 390GW पवन और सौर ऊर्जा निर्माण को अपने ऑफ़ ग्रिड में समाहित कर लेगा.
भारत के जलवायु परिवर्तन से संबंधी प्रण में कहा गया है कि भारत की 70% आबादी ऊर्जा के पारंपरिक स्त्रोतों पर निर्भर है, जो अप्रभावी होने के साथ-साथ आंतरिक तौर पर बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण का कारक भी है. यही वजह है कि भारत अब बिजली उत्पादन के क्षेत्र में बायोमास का इस्तेमाल कर रहा है क्योंकि उसके मुताबिक, ये ज़्यादा स्वच्छ भी है और ज़्यादा कुशल भी हैं. भारत का लक्ष्य 2022 तक 10GW बायो-ऊर्जा हासिल करने का है और उल्लेखनीय है कि 2018 तक इसमे 9GW की क्षमता हासिल कर ली है.
भारत के पास तकरीबन 4.5GW के छोटे हाइडो (25MV से कम क्षमता वाले प्लांट्स) हैं, जो 2022 के 5GW के लक्ष्य से कम हैं. अगर बड़े हाइड्रो परियोजनाओं की बात की जाए, तो 2018 में भारत की क्षमता 45GW थी जबकि 2005 में ये महज़ 30GW थी. भारत द्वारा किए गए प्रण में कहा गया है कि उसका लक्ष्य देश की हाइड्रो परियोनाओं की विस्तृत संभावनाओं के विकास पर बेहद तेज़ी से काम करने का है.
2015 में लिए गए जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रण के मुताबिक, भारत सरकार बिजली के स्त्रोत के रूप में परमाणु ऊर्जा को सुरक्षित, पर्यावरण के लिए अनुकूल और आर्थिक रूप से ज़्यादा सस्ता मानती है. उसकी मौजूदा क्षमता 6.8GW की है और 2032 तक वह इसमें 9 गुना की वृद्धि यानि 63GW करने का लक्ष्य रखता है. ग़ौरतलब है कि फ़िलहाल देश में परमाणु ऊर्जा से होनेवाले नफ़े और नुकसान को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है.
भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ा थोरियम रिज़र्व है – जिसे मौजूदा परमाणु ईंधन के सुरक्षित विक्लप के तौर पर देखा जाता है – और लम्बी अवधि के एक्सपेरिमेंटल थोरियम रिएक्टर्स में उसकी गहरी रूचि भी है. हालांकि अगर कभी इसके उत्खनन की योजना बनाई भी जाती है, तो भी उसके लिए 2050 से पहले ऐसा करना संभव नहीं होगा.
ऊर्जा संबंधी दक्षता
भारत हमेशा से अपनी ऊर्जा संबंधी दक्षता और उत्सर्जन की तीव्रता को लेकर गर्व महसूस करता रहा है. 2001 में भारत के एनर्जी कंज़र्वेशन एक्ट (ऊर्जा संरक्षण कानून) द्वारा ब्यूरो ऑफ़ एनर्जी एफ़ीशियंसी की स्थापना की थी, जिसका मुख्य काम अर्थव्यवस्था की ऊर्जा संबंधी तीव्रता में कमी लाना है.
भारत का कहना है अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्य के मुताबिक वह 2020 तक उत्सर्जन की तीव्रता में 20-25% तक की कमी लाकर उसे 2005 स्तर लाने की कोशिश करेगा. उसने इस बात को भी रेखांकित किया है कि किस तरह से अन्य देशों के मुक़ाबले भारतीय लोग ऊर्जा का कम इस्तेमाल करते हैं.
2010 में भारत ने नैशनल मिशन फॉर एनहान्स्ड एनर्जी एफ़ीशियंशी (NMEEE) को लॉन्च किया था, जो NAPCC के आठ मिशन का एक और एक हिस्सा है. इसका उद्देश्य उपेक्षित बिजली संसाधनों से 20GW क्षमता का निर्माण करना और हर साल 23 मिट्रिक टन ईंधन बचाना है.
बाज़ार आधारित परफॉर्म, अचीव और ट्रेड (PAT) स्कीम उनकी सबसे मुख्य योजनाबद्ध पहल है. इसके ज़रिए अधिक मात्रा में बिजली की खपत वाले इंडस्ट्री जैसे थर्मल पावर प्लांट्स, लोहा व स्टील और सीमेंट इंडस्ट्री का शुमार है. इस क्षेत्र में अधिक उपलब्धि हासिल करनेवाले लक्ष्य को छूने में अक्षम साबित हुईं कंपनियों को अपने ऊर्जा संबंधी सर्टिफ़िकेट बेच सकते हैं.
इसके पहले चक्र में, वह 2012 से 2015 के बीच में 31MtCO2e की बचत करने में कामयाब रहा था. सरकार का कहना है कि ये उसके द्वारा मौजूदा समय में उसके द्वारा सालाना किए जानेवाले 1% उत्सर्जन के बराबर है. इस योजना की तारीख़ों को आगे बढ़ाया गया है ताक़ि ज़्यादा से ज़्यादा सेक्टर को इसमें शामिल किया जा सके.
अन्य NMEEE योजनाओं में अधिक कारगर अप्लायंसेस का समर्थन करना शामिल है, जिसमें सीलिंग फ़ैन्स आते हैं. इसमें ऐसे फ़ाइनांसरों को बढ़ावा देना भी शामिल है, जो उर्जा संबंधी दक्षता में संलग्न हों. इसके अलावा, ऊर्जा संबंधी दक्षता को और बढ़ावा देने के लिए पार्शियल रिस्क गारंटी और वेंचर कैपिटल जैसे उनके फ़ाइनांशियल इंस्ट्रमेंट्स का इस्तेमाल किया जाना भी शामिल है.
भारत के पास एक ख़ास तरह की रेटिंग सिस्टम – नैशनल स्मार्ट ग्रिड मिशन भी है, जो इमारतों की ऊर्जा संबंधी परफॉर्मेंस को परखता है. इसके अतिरिक्त, छोटे उद्योगों के लिए भी एक रेटिंग सिस्टम बनाई गई है, जो पर्यावरण के अनुकूल उत्पादन को बढ़ावा देता है.
इसने हाल ही में जारी किए गए एक नए एक्शन प्लान के मुताबिक, भारत का इरादा अपनी शीतल ऊर्जा ज़रूरतों (बिजली की मांग में तेज़ी लानेवाला सबसे बड़ा कारक) में 2038 तक 25-40% में कटौती करना है. इसी साल तक शीतल ऊर्जा संबंधी मांग में भी 25-30% तक की कटौती करने की भी योजना है.
सरकार का लक्ष्य 2019 तक भारत के 14 मिलियन पारंपरिक स्ट्रीट लाइट्स को एलईडी लाइट्स में बदलना है. सरकार सब्जिडी के ज़रिए भी एलईडी लाइट्स को घर–घर में पहुंचाने की कोशिशों में जुटी है और वह अब तक 312 मिलियन लाइट्स का वितरण कर चुकी है.
परिवहन प्रणाली
दुनिया में सबसे ज़्यादा कारों की बिक्री के मामले में भारत का नंबर पांचवां है. बढ़ती आमदनी और तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के चलते इसमें और भी बढ़ोत्तरी का अनुमान लगाया जा रहा है. इससे विश्व भर में तेल की मांग बढ़ने की भी आशंका है.
सरकार इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (EVs) को प्रमोट कर रही है, हालांकि अभी भारत में ऐसे वाहनों की संख़्या महज़ 2,60,000 है, जिसमें दो पहिया वाहनों और हायब्रीड्स का शुमार है. ग़ौरतलब है कि वाहनों की कुल बिक्री में से EVs की बिक्री महज 0.6% होती है. इनके लिए चार्जिंग स्टेशन बनाने की गति भी काफ़ी धीमी है.
भारत में 1.5 मिलियन इलेक्ट्रिक रिक्शा भी मौजूद हैं, हालांकि इनका इस्तेमाल छोटी दूरियों के सफ़र के लिए ही किया जाता है.
2011 में, भारत ने नैशनल मिशन फॉर इलेक्ट्रिक मोबिलिटी का गठन किया था, जिसका उद्देश्य इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (EV) और हायब्रिड के निर्माण को बढ़ावा देना है. 2017 में मौजूदा बिजली मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि उम्मीद है कि 2030 तक पेट्रोल और डीज़ल कारों की बिक्री समाप्त हो जाएगी. मगर फिर सरकार ने अपने इस लक्ष्य से जैसे हाथ पीछे खींच लिए और अब उसे उम्मीद है कि 2030 तक कुल बिक्री में से EVs की बिक्री 30% तक हो जाएगी. सरकार को इस बात की भी उम्मीद है कि 2030 तक सभी शहरी बसें पूरी तरह से इलेक्ट्रिक होंगी.
2015 में भारत ने अपनी FAME योजना लॉन्च की थी ताक़ि वह इलेक्ट्रिक व हायब्रिड कार, मोपेड, रिक्शा और बस जैसे वाहनों को सब्सिडी दे सके. हाल ही में इसमें और बढ़ोत्तरी करते हुए भारत ने तीन साल की अवधि में 1.4 बिलियन डॉलर और जोड़ने का ऐलान किया. इसमें से 1.2 बिलियन डॉलर सब्सिडी के लिए हैं, तो वहीं 140 मिलियन डॉलर इंफ़्रास्ट्रक्चर की चार्ज़िंग लिए है. कई राज्यों ने भी EVs का समर्थन करने के लिए निजी तौर पर कुछ नीतिगत पहल किए हैं.
भारत ने पैसेंजर वेहिकल ईंधन संबंधी दक्षता मानक को पहली दफ़ा 2014 में मंज़ूरी दी थी. इसे 2017 में पूरी तरह से लागू किया गया और 2022 में इससे संबंधित नियमों को और कड़ा किया जाएगा. तब भी ये नियम यूरोपियन यूनियन (EU) के मौजूदा मानकों से कम कड़े होंगे.
भारत द्वारा 2009 में बनाई गई राष्ट्रीय बायो-ईंधन नीति यानि नैशनल बायोफ़्यूल्स पॉलिसी का महत्वाकांक्षी लक्ष्य था कि वह 2017 तक 20% बायो-ईंधन को पेट्रोल और डीज़ल मिक्स में ब्लेंड कर दे. उल्लेखनीय है कि भारत अपने इन लक्ष्यों को पूरा करने में नाकाम रहा है. अभी 2018 तक वह महज 2% बायोईथानॉल और महज़ 0.1% बायोडीज़ल ब्लेंड करने में सफल रहा है. उसने अपनी बायो-ईंधन पॉलिसी को 2018 में अपग्रेड किया था. इसमें 2030 तक बायोईथानॉल का 20% ब्लेंड और बायोडीज़ल के 5% ब्लेंड का प्रस्तावित है.
रेलवे ट्रैक की लम्बाई के मामले मे भारतीय रेलवे प्रणाली दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेल प्रणाली है. रेलवे के ज़रिए यात्रा करनेवाले सबसे ज़्यादा मुसाफ़िरों के मामले में चीन के बाद भारत दूसरा सबसे बड़ा देश है. किसी भी अन्य देशों के मुक़ाबले इसमें सबसे ज़्यादा बढ़ोत्तरी होगी और 2015 तक इसमें तीन गुना तक वृद्धि होगी.
भारत के तकरीबन आधे पारंपरिक रेलवे ट्रैक बिजली संपन्न हैं, जबकि उसकी पहली हाई स्पीड लाइन का निर्माण अभी जारी है. ज़मीन के रास्ते ढोहे जाने वाले सामान में से एक तिहाई भार का वहन रेल द्वारा किया जाता है, जो दुनिया के मानकों से कहीं ज़्यादा है. इसमें जो चीज़ रेलवे द्वारा सबसे ज़्यादा ढोही जाती है, वह है कोयला.
भारत के जलवायु प्रण के मुताबिक, उसकी योजना ज़मीन से ढोहे जानेवाली कुल वस्तुओं में रेलवे की हिस्सेदारी को बढ़ाकर 45% तक करने की है, जिसमें सामान को ढोहने के लिए एक समर्पित कॉरिडोर का निर्माण शामिल है.
2014 में, दुनिया के कुल उत्सर्जन में भारतीय एविशन इंडस्ट्री का योगदान महज़ 1% था, जो कि विश्व औसत से बेहद कम था. मगर एविशन इंडस्ट्री के तेज़ी से हो रहे विस्तार के चलते इसमें वृद्धि की आशंका है. घरेलू एविशन मार्केट के विस्तार के मामले में भारत दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ता बाज़ार है. महज़ पिछले साल ही इसमें 19% की बढ़ोत्तरी देखी गई. भारत का लक्ष्य अगले 10-15 सालों में 100 नए हवाई अड्डे बनाने का है. इस तरह से 2020 तक भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा एविएशन मार्केट बन जाएगा. 2010 से लेकर अब तक घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों तरह की उड़ानों में मुसाफ़िरों की संख्या दोगुनी हो गई है और 2037 तक इसके 520 मिलियन होकर तीन गुना तक बढ़ जाने का अनुमान है.
भारत UN एविएशन एमिशन ऑफ़सेट स्कीम, कोरसिया का सदस्य है, हालांकि उसने 2021 में शुरू होनेवाले वॉलंटरी पायलट फ़ैज़ के लिए अभी तक हामी नहीं भरी है.
जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रण में भारत ने तटीय शिपिंग और इनलैंड वॉटर ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा देने की योजनाओं को रेखांकित किया है. इसकी मुख्य वजह उनकी ईंधन दक्षता और तुलनात्मक तौर पर सस्ता होना है.
तेल और गैस
भारत बड़े पैमाने पर तेल पर निर्भर देश है. 2017 में उसकी कुल ऊर्जा खपत में से तेल की हिस्सेदारी 29% थी. उसकी तेल की ज़रूरतों में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है, जिसके 2040 तक बढ़कर दोगुना हो जाने का अनुमान है. इसका मतलब ये हुआ कि भारत घरेलू स्तर पर तेल की बढ़ती मांग के मामले में चीन को भी पीछे छोड़ देगा और दुनिया में तेल की बढ़ती ज़रूरतों के मद्देनज़र भारत अव्वल साबित होगा. ग़ौरतलब है कि ख़ुद भारत की तेल उत्पादन क्षमता में गिरावट देखी जा रही है.
भारत द्वारा तेल और गैस दोनों को बड़े पैमाने पर उपभोक्ता सब्सिडी मुहैया कराई हुई है. उल्लेखनीय है कि 2014 और 2016 के बीच इस सब्सिडी में लगभग 75% तक की कमी यानि सब्सिडी में 6.58 बिलियन डॉलर की कटौती की गई. इसकी मुख्य वजहें उदारीकरण की नीतियां और तेल की गिरती कीमतें हैं. आर्थिक सुधार की प्रक्रिया अब भीट जारी है.
भारत ने जलवायु परिवर्तन के प्रति अपनी चिंताएं ज़ाहिर करने के लिए सब्सिडी में कटौती और पेट्रोल व डीज़ल पर अधिक टैक्स लगाए जाने की बातों को प्रमुख से रेखांकित किया है. उदाहरण के लिए हाल ही भारत द्वारा शुरू किए गए ‘छोड़ दो’ यानि ‘गिव इट अप’ अभियान के चलते बड़े पैमाने पर समक्ष लोगों ने स्वयंभू तरीके से अपने एलपीजी कुकिंग गैस पर मिलनेवाली सब्सिडी को छोड़ दिया था.
भारत में किरासिन तेल को बड़े पैमाने पर खाना पकाने और बिजली के उद्देश्यों से इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में किरासिन की कीमतों में बदलाव से बिजली से वंचित लोगों पर इसका ख़ासा असर पड़ेगा.
डीज़ल की खपत में और भी वृद्धि का अनुमान है, जिसमें सरकार द्वारा सड़क निर्माण की परियोजनाओं पर किए जाने खर्च का ख़ासा योगदान है.
भारत की ऊर्जा खपत में गैस की भूमिका ज़्यादा अहम नहीं रही है. 2017 में कुल ऊर्जा खपत के मामले में गैस की हिस्सेदारी महज़ 6% रही है. भारत अपनी आधी गैस की ज़रूरतों का आयात कतर, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और रूस से करता है.
ग़ौरतलब है कि भारत में गैस की खपत में बढ़ोत्तरी हो रही है. गैस के ऊंचे दामों का मतलब है कि वो कोयला और ईंधन तेल से मुकाबला करने में फ़िलहाल सक्षम नहीं है. भारत की योजना है कि वह 2022 तक अपनी ऊर्जा खपत में गैस की हिस्सेदारी 15%. तक बढ़ा दे. इस संबंध में भारत का कहना है कि इसे स्वच्छ ईंधन के तौर पर अपनाने से कई तरह के पर्यावरणीय लाभ होंगे. तेल के मामले में भारत का घरेलू उत्पादन काफ़ी कम है और वह अपनी ज़रूरतों के लिए बड़े पैमाने पर आयात पर निर्भर रहता है. हालांकि घरेलू स्तर पर गैस और तेल के रिज़र्व के मामले में भारत की संभावनाएं काफ़ी अच्छी हैं.
हाल ही में संसदीय दल ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 25GW से भी ज़्यादा गैस संबंधी पावर प्लांट घरेलू स्तर पर गैस की कमी और उसे आयात करने के ऊंचे दामों के वजह से ठप पड़े हुए हैं. स्टैटिजिक ऑयल रिज़र्व की तरह ही गैस के मामले में भी भारत को ‘आपात भंडार’ के तौर पर देखा जाता है.
कृषी और वन
भारत के कुल GHG उत्सर्जन में खेती का योगदान लगभग 16% है. इसमें से 74% उत्सर्जन के लिए मवेशियों – ख़ासकर गायों और भैंसों – के इस्तेमाल से पैदा होनेवाली मिथेन और चावल की खेती ज़िम्मेदार है. बाक़ी 26% उत्सर्जन की बड़ी वजह कीटनाशक से निकलनेवाली नाइट्रस ऑक्साइड गैस है.
भारत की तकरीबन दो-तिहाई आबादी अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है. दुनिया में कुल जानवरों की 15% आबादी भारत में है. 2014 तक भारत में गायों और भैंसों की संख्या 300 मिलियन थी. दुनिया के कुल दूध का 19% उत्पादन भारत में होता है.
भारत के जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रण के मुताबिक, बढ़ती आबादी के मद्देनज़र उसे अनाज़ उत्पादन में तेज़ी लानी होगी. उसके अनुसार, मगर बार-बार पड़ने वाले सूखे की मार और बाढ़ से पैदा होनेवाले हालातों से खेती पर मौसम के बदलते मिजाज़ का विपरीत असर होता है.
NAPCC के आठ मिशन में एक और मिशन यानि भारत का नैशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल अग्रीकल्चर (NMSA) का लक्ष्य खेती से पैदा होनेवाले उत्सर्जन को काबू में रखना और खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देना है.
भारत कई तरह की पहल करते हुए मिथेन के कम उत्सर्जन, चावल के अतिरिक्त बाक़ी कई तरह के अनाज के उत्पादन को बढ़ावा, रसायन मुक्त खेती, स्वस्थ मिट्टी जैसे पायलट प्रोजेक्ट्स को बढ़ावा देने की शुरुआत की है. 2015 में शुरू की योजना के तहत यूरिया पर नीम की कोटिंग को अनिवार्य कर दिया गया था ताक़ि नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन कम हो.
सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जानेवाले अक्षम किस्म के वॉटर पम्प खेती के लिए होनेवाली कुल ऊर्जा खपत का 70% ज़िम्मेदार हैं. भारत ने अब तक 200,000 और पम्प इंस्टॉल किए हैं, जो देश के 21 मिलियन का महज़ 1% है, जबकि उसकी योजना ऐसे 2.5 मिलियन और सौर पम्प लगाने की है.
जलवायु परिवर्तन संबंधी भारत के प्रण के मुताबिक, हाल के सालों में उसके वन आवरण में वृद्धि हुई है, जिससे वो नेट CO2 सिंक के रूप में स्थापित होता है. हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2000 से 2017 के बीच में दुनिया में हरित क्षेत्र में हुई बढ़ोत्तरी में भारत की हिस्सेदारी 7% तक रही है.
भारत की दूरदर्शी योजना है कि उसके कुल क्षेत्रफल का 33% यानि 109 मिलियन हेक्टर हिस्सा वन आवरण के तहत आ जाए. 2013 में ये 79 मिलियन हेक्टर यानि इसकी हिस्सेदारी 24% थी.
उसका दूसरा लक्ष्य 2030 तक अतिरिक्त वन और पेड़ों के आवरण के ज़रिए 2500-3000MtCO2 को समाहित करना है. CAT के मुताबिक, इसके आधे से अधिक लक्ष्यों को 2014 में लॉन्च किए गए ग्रीन इंडिया मिशन की मदद से हासिल किया जा सकता है. इस मिशन का मकसद वन आवरण में 5 मिलियन हेक्टर की बढ़ोत्तरी करना है और इसके अलावा अगले 10 सालों में पहले से मौजूद और 5 मिलियन हेक्टर के वन आवरण में गुणात्मक बदलाव लाना है. भारत सरकार अपने राज्यों को वन आवरण में बढ़ोत्तरी के प्रेरित करती है और उसके मुताबिक आर्थिक सहायता देती है.
हालांकि कई जानकारों का मानना है कि वन आवरण से संबंधित भारत के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए हैं और इन आंकड़ों को तेज़ी से हो रही वनों की कटाई के ढाल के तौर पर पेश किया जा रहा है.
प्रभाव और अनुकूल बदलाव
भारत ने 2015 के जलवायु परिवर्तन से संबंधी अपने प्रण का ज़्यादातर हिस्सा देश में मौजूदा असर और भविष्य में होनेवाले विपरीत प्रभाव को रेखांकित करने में लगाया है:
“जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से भारत की गिनती उन चुनिंदा देशों में होती है, जिसपर इसका सबसे ज़्यादा विपरीत असर होगा, जिसकी अधिकतर आबादी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था, विस्तृत तटीय इलाकों, हिमालयी इलाकों और द्वीपों पर निर्भर है.”
इसी तरह उसने अपनी द्विवार्षिक रिपोर्ट में इस बात की ओर इंगित किया है कि बाढ़, सूखे और तूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाओं के मामलों में वह बेहद संवेदनशील है. इनसे बढ़ते खतरे का असर उन इलाकों की जनसंख्या और सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है.
1850 से लेकर अब तक भारत के सालाना तापमान में करीब 1.0C की वृद्धि हो चुकी है.
वर्ल्ड बैंक द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 2050 तक भारत को 1.2 ट्रिलियन डॉलर का ‘जीडीपी घाटा’ हो सकता है. इसके अलावा, अगर जलवायु परिवर्तन से पहले के हालातों से तुलना करें, तो 2050 तक उसकी आधी आबादी के जीवन स्तर में और गिरावट देखी जा सकती है. अध्ययन के अनुसार, इस नुकसान का कारण बढ़ता तापमान और मॉनसून में होनेवाली बारिश का बार-बार बदलता मिजाज़ होगा.
पोल्स की परिधि के बाहर सबसे ज़्यादा बर्फ़ीले इलाके के तौर पर जानेवाले हिमालय के पर्वत भारत और दक्षिण एशियाई इलाके के सबसे ज़्यादा बर्फ़ एकाग्रता वाले हिस्से हैं. इस क्षेत्र में रहने वाले तकरीबन 250 मिलियन लोगों के लिए यहां के ग्लेशियर पानी के मुख्य स्त्रोत हैं. इसके अलावा भारत समेत आसपास के सात अन्य देश में रहनेवाले 1.65 बिलियन लोग भी यहां से बहनेवाली नदियों से बहनेवाले पानी पर निर्भर हैं.
इस साल जारी की गई एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया है कि बढ़ते तापमान के चलते 2100 तक इस इलाकों के ग्लेशियर का एक तिहाई हिस्सा पिघल जाएगा. विश्व का तापमान 1.5C. तक सीमित रहा, तब भी ऐसा होने की आशंका बनी रहेगी. भारत जल से पैदा होनावाले मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों के मामलों में बढ़ोत्तरी के प्रति भी काफ़ी संवेदनशील है. जलवायु परिवर्तन के चलते इन दोनों बीमारियों में ख़ासी वृद्धि देखी जा सकती है.
गर्मियों में चलनेवाली लू से भी देश की एक बड़ी आबादी को खतरा है. बता दें भारत में 600 मिलियन लोग ऐसे इलाकों को में रहते हैं जो 2050 तक बढ़ते तापमान से पैदा होनेवाली गर्म हवाओं के हिसाब से मध्यम अथवा कठोर किस्म के इलाकों में तब्दील हो जाएंगे. लांसेन्ट काउंटडाउंन ऑन हेल्थ ऐंड क्लाइमेट चेंज की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 में बड़े पैमाने पर खेत-खलिहानों में काम करनेवाले मज़दूर अत्याधिक गर्मी का शिकार हुए थे.
भारत के समुद्री स्तर में बढ़ोत्तरी हो सकती है. इससे नदी जल प्रणालियों पर असर पड़ सकता है, जिससे इनपर निर्भर करोड़ों लोगों की आजीविका प्रभावित हो सकती हैं. भारत के 1,238 द्वीप भी खतरे में हैं.
देश का आपदा प्रबंधन कानून 2005 में लागू किया गया था. इसमें जलवायु परिवर्तन को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी, मगर इसमें ‘‘रेस्पॉन्स और रिलीफ़’’ अप्रोच यानि ‘प्रतिसाद और राहत’ से आगे बढ़कर ‘‘प्रीवेंशन, मिटिगेशन और प्रीपेडनेस’’ यानि ‘निवारण, शमन और तत्परता’ का ज़िक्र किया गया है. 2016 में भारत ने आपदा प्रबंधन योजना को लागू किया, जो पेरिस समझौते और दुनिया के अन्य आपदा के खतरों में कटौती से संबंधित ढांचे के मुताबिक बनाया गया है.
भारत ने NAPCC के आठ मिशन में से एक मिशन को, हिमालय के पारिस्थितिकीय तंत्र को बचाने के लिए समर्पित किया है. इसके दो अन्य मिशन जल और शोध एवं विकास पर केंद्रित हैं.
UNFCCC के तहत जारी की गई नैशनल कम्युनिकेशन की सबसे ताज़ा रिपोर्ट 2012 में सौंपी गयी थी. इसमें संवेदनशीलता का आंकलन और संबंधित बदलाव को रेखांकित किया गया था.
जलवायु परिवर्तन संबंधी आर्थिक सहायता
भारत काफ़ी पहले से जलवायु परिवर्तन से संबंधित आर्थिक सहायता और विकसित देशों से विकासशील देशों को टेक्नोलॉजी के ट्रांसफ़र पर ज़ोर देता आया है. उसके जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रण के मुताबिक :
“विकास की प्रक्रिया के दौरान उत्सर्जन में कमी को लेकर हमारे प्रयासों का संबंध पैसों की उपलब्धता और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें मिलनेवाली आर्थिक सहायता और टेक्नोलॉजी ट्रांसफ़र से है क्योंकि भारत में विकास की चुनौतियां अभी भी काफ़ी जटिल हैं.”
भारत का कहना है कि उसे अपने जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रण पर अमल करने लिए 2.5 ट्रिलियन डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी, जो सभी विकासशील देशों द्वारा मिलाकर किए जाने वाले ज़रूरी खर्च का 71% है.
कार्बन ब्रीफ़ के विश्लेषण से ये बात सामने आई कि भारत एक ऐसा देश है जिसे सिंगल कंट्री फ़ंडी (725 मिलियन) के तौर पर सबसे ज़्यादा धनराशि प्राप्त हुई, जिसे मल्टीलैटरल क्लाइमेट फ़ंड कि मान्यता के बाद समग्र शर्तों के साथ मंज़ूर किया गया था. ज़्यादातर धनराशि क्लीन टेक्नोलॉजी फ़ंड (CTF) द्वारा नवीकरणीय परियोजनाओं के लिए उपलब्ध कराई गई थी. अगर इसे प्रति व्यक्ति को मिलि फ़ंडिंग के तौर पर देखा जाए, तो ये महज़ 0.60 डॉलर है, जो कि तुलनात्मक तौर पर कम है.
कार्बन ब्रीफ़ द्वारा ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकोनॉमिक कॉर्पोरेशन ऐंड डेवलपमेंट (OECD) के डाटा के विश्लेषण से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के विकास संबंधी आर्थिक सहायता के क्षेत्र में विस्तृत रूप से भारत को 2015 और 2016 में हर साल लगभग 2.6 बिलियन डॉलर की सहायता राशि प्राप्त हुई.
भारत ने घरेलू स्तर पर भी जलवायु परिवर्तन से संबंधी आर्थिक पहल की है. राष्ट्रीय स्तर पर अपने आठ लक्ष्यों के लिए खर्च किए जानेवाले पैसों के अलावा उसके द्वारा लगाए गए कोयला सेस से उसे अब 1.2 बिलियन डॉलर हासिल हुए हैं.पूरी तरह तो नहीं, मगर इन पैसों का इस्तेमाल स्वच्छ ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है. गोद ली गई कई योजनाओं को भी सराकरी फ़ंडिंग मिल रही है.
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